भरत और राम के प्रेम से सीखा जा सकता है भाई से प्रेम और आस्था

रामचरित मानस के पात्र (सीरीज)

राम की प्रतिछाया भरत हैं परिवार में प्रेम की पहचान

आधुनिक युग में राम और उनके भाइयों की जीवन शैली लगभग सभी क्षेत्रों में हमारी समझ को परिष्कृत करने का माध्यम बन सकती है। भाई से भाई के अगाध प्रेम की कहानी कहता है भरत का चरित्र। रामचरित मानस के पात्र श्रंखला में इस बार हम भरत के चरित्र की ही बात कर रहे हैं। अगर भाई से प्रेम की तुलना करनी हो तो अक्सर मुंह से भरत का नाम निकल ही जाता है। भरत का यह चरित्र वर्तमान वैमनस्य वाले युग में अपनी अलग ही छाप छोड़ सकता है। बात करते हैं कि भरत के स्वरूप की तो वे श्री राम की प्रति छाया ही प्रतीत होते हैं।

 

मर्यादित व्यवहार, संयमित जीवन उन्हें राम के बराबर खड़ा करता है लेकिन बड़े भाई के प्रति भरत के निश्वार्थ प्रेम ने अनेक प्रसंगों में स्वयं से राम से कहलवा दिया कि वे अतिशय प्रिय हैं। आधुनिकता के साथ अगर संयमित जीवन को जीना है तो अयोध्या के परिवार को वर्तमान परिवेश के साथ ढालकर जीवन में उतार लिया जाए तो झंझावातों से मुक्ति पाई जा सकती है।

भरत का व्यक्तित्व अगाध समुद्र की भांति है, उनका बुद्धि कौशल सीमा से परे है। लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। भ्रातृ प्रेम की तो वे सजीव मूर्ति रहे।

कथानक के अनुसार ननिहाल से अयोध्या लौटने पर जब उन्हें माता से अपने पिता के स्वर्गवास का समाचार मिलता है, तब ये शोक से व्याकुल होकर कहते हैं- ‘मैंने तो सोचा था कि पिता जी श्री राम का अभिषेक करके यज्ञ की दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे, बड़े भइया श्री राम को सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये। जब श्री राम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ। उन्हें मेरे आने की शीघ्र सूचना दें। मैं उनके चरणों में प्रणाम करूंगा। अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं।’

जब कैकयी ने भरत को राम वनवास की बात बतायी, तो उन्होंने कैकेयी से कहा- ‘मैं समझता हूं, लोभ के वशीभूत होने के कारण तू अब तक यह न जान सकी कि मेरा श्री रामचन्द्र के साथ भाव कैसा है। इसी कारण तूने राज्य के लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला। मुझे जन्म देने से अच्छा तो यह था कि तू बांझ ही होती। कम-से-कम मुझ जैसे कुल कंलक का जन्म तो नहीं होता। यह वर मांगने से पहले तेरी जीभ कट कर गिरी क्यों नहीं!’ इस प्रकार कैकयी बुरा-भला कहकर भरत माता कौशल्या से मिले। गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लेकर पिता की अंत्येष्टि क्रिया संपन्न कराई।

इसके बाद वे चित्रकूट रवाना हो गए। उन्होंने राज्याभिषेक अस्वीकार कर दिया। श्रृंगवेरपुर में पहुंचकर निषादराज को देखकर रथ का परित्याग कर दिया और रामसखा गुह से बड़े आत्मीय भाव से मिले, उन्होंने गुह को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे निषाद हैं।

प्रयाग में जब वे भारद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुंचे तो मुनि ने कहा- ‘भरत, सभी साधनों का परम फल श्री सीताराम का दर्शन है और उससे भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है। मुनि के इस कथन से स्पष्ट होता है कि राम यात्रा में भरत का महत्व कितना विशिष्ट है।

वर्तमान समय में धन और संपत्ति भाइयों के बीच विवाद की सबसे बड़ी वजह बनकर उभरी है। सहनशक्ति इतनी कम है कि भाई-भाई को मारने से बाज़ नहीं आता। जब तक धन बीच में नहीं आता तभी तक मधुरता का प्रदर्शन होता है। जबकि राम के लिए भरत ने और भरत के लिए राम ने राज्य का मोह त्याग दिया।

दोनों ने भातृ प्रेम को महत्व दिया और चौदह वर्ष का वनवास की यात्रा में राम और भरत दोनों ने ही एक दूसरे का विस्मरण नहीं किया। रामचरित मानस में भरत के चरित्र का महत्व सबसे ज्यादा है। बाबा तुलसीदास ने भरत चरित्र को कर्तव्य पारायण की अद्भुत व्याख्या तक पहुंचाया है। मर्यादित जीवन जीने वाले राम के बाद भरत का व्यक्तित्व ऐसा है जो एकांगी है लेकिन कर्तव्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित है।


गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं…………….
हंस बंसु दशरथ जनकु, राम लखन से भाई ।

जननी तू जननी भई विधि सन कुछ न बसाय।

 

माता कैकेयी से वनवास की आज्ञा पाकर जहाँ राम अति प्रसन्न होते हैं, वहीं जब इसकी सूचना भरत को मिलती है तो वे क्षुब्ध हो उठते हैं और बड़े कातर भाव से कहते हैं ………………

 

धीरजु घरि भरि लेहि उसासा। पापिन संबहि भाँति कुलनासा ।।

जो पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही ।।

 

इस वृतांत के बाद मां के वचन से प्राप्त राज्य भरत उतनी ही आसानी से ठुकरा देते हैं, जितनी आसानी से राम ने वन गमन को स्वीकार किया। मां कैकर्यी से भरत कहते हैं …………….

 

राम विरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह विधि मोहि ।

मो समान को पातिकी बादि कहऊ कछु तोहि ।।

राजकाज संभालने के लिए भरत को ननिहाल से बुलाया गया, वे आए लेकिन राज्य को न करके राम को मनाने के लिए चल पड़े। राम सीख देते हुए कहते हैं…………

 

पितु आयसु पालहुँ दुहु भाई । लोक वेद भल भूप भलाई।

 

यह सुनने के बाद भरत भी राम के आदर्श के सम्मुख नत मस्तक हो गए और फिर खड़ाऊं लेकर वापस लौटे और चौदह वर्ष तक अयोध्या का राज राम की विरासत के रूप में ही संभाला।

एक बार फिर तुलसी बाबा को समझिए…………..

सुनि सिख पाइ असीस बडि़ गनक बोल दिन साधि ।

सिंहासन प्रभु पादुका, बैठारे निरुपाधि ।।

भरत राजा जरूर हुए लेकिन उनका चौदह वर्ष का जीवन तपस्वी की तरह ही व्यतीत हुआ। सत्ता का लालच उन्हें स्पर्श तक नहीं कर सका और राम की वापसी पर तुरंत उनके हाथ में सत्ता सौंप दी। बाबा तुलसी ने भरत के चरित्र को कर्तव्य, त्याग और तपस्या के समावेश के साथ प्रस्तुत किया है। चरित्रांकन इस तरह से किया गया है कि भरत के प्रति कभी किसी को संदेह तक नहीं होता।


भरत का चरित्र

आदर्श महापुरुष

भरत सरल हृदय तथा आदर्श महापुरुष हैं। छल-कपट, षडयंत्र आदि दोषों से वे पूरी तरह मुक्त हैं। माता द्वारा राज्य मांगने पर ग्लानि महसूस हुई और वे स्वयं को ही इस अपराध का दोषी समझने लगे। उन्हें यह स्वीकार ही नहीं हुआ कि कोई उनके चरित्र पर शंका करे। कौशल्या, कैकेयी, वशिष्ठ तथा राम के सम्मुख वे अपने हृदय की इस महानता को प्रकट करते हैं। वे रघुवंश की नीति व मर्यादा का पालन करते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

 

भावुक हृदय

भरत अत्यधिक भावुक हैं। वे सभी के सुख-दुख की चिन्ता करते हैं। राम के वनगमन, पिता के देहान्त, माताओं के वैधव्य और उर्मिला-मांडवी,श्रुतिकीर्ति की विरह व्यथा को जानकर उनका हृदय दुख के सागर में गोते लगाने लगता है।

 

परम त्यागी तथा अनासक्त

कैकयी के बार-बार समझाने पर भी भरत राजगद्दी को स्वीकार नहीं करते। वे राज्य का वास्तविक अधिकारी राम को ही मानते हैं। भरत के इस अनासक्त भाव को सभी जानते हैं। स्वयं कौशल्या कहती हैं कि भरत को राज्य का लेशमात्र भी मोह नहीं है।

 

राम के सच्चे अनुयायी

भरत को सबसे बड़ा दुख राम के वनगमन का है। राम के प्रति उनके मन में असीम आदर का भाव है। वन में जाकर वे राम से अयोध्या लौटने की प्रार्थना भी करते हैं। राम का वनवासी रूप देखकर वे व्याकुल हो जाते हैं। वे तो राम के पूर्ण भक्त, आज्ञाकारी तथा कृपापात्र बने रहना ही पसंद करते हैं।

साहसी और वीर

भरत के साहस, पराक्रम, वीरता,सहनशीलता,उदारता, विनम्रता,त्याग, धैर्य,भक्ति,सेवा, समर्पण भाव को कभी पूरी तरह से रेखांकित नहीं किया जा सका। जबकि उनकी वीरता इसी से प्रकट होती है कि हनुमान जैसे पराक्रमी की छाया को देखकर ही उन्होंने नीचे ला दिया। चौदह वर्ष तक उन्होंने राज्य की रक्षा की और इन वर्षों में एक भी आक्रमण अयोध्या पर कोई नहीं कर सका।

लेखक परिचय
राधा शर्मा,
-लेखिका वर्तमान में शासकीय विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। मैं नदी हूं शीर्षक से उनका कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

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