क्या आपको पता है कि पहली बार हाथठेले पर निकला था परशुराम चल समारोह

-जानिए, मध्यप्रदेश में कब और किस तरीके से निकला था परशुराम चल समारोह
-मुरार के पंडित हरिशंकर समाधिया, बाबूराम दीक्षित, लक्ष्मीनारायण दंडोतिया और विदुरदत्त चतुर्वेदी की रही थी मुख्य भूमिका

अक्षय तृतीया न सिर्फ अबूझ मुहूर्त है, बल्कि यह दिन भगवान परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी पहचाना जाता है। परशुराम के जन्मदिन पर शहरों में चल समारोह निकाला जाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि आजादी के बाद प्रदेश में चल समारोह निकालने की परंपरा कब शुरू हुई? पहली बार यह चल समारोह कहां और किस तरीके से निकला था और इस चल समारोह को निकालने के लिए किन लोगों ने प्रयास किए थे।

अगर आपको नहीं पता है तो जान लीजिए कि मध्यप्रदेश में पहली बार परशुराम चल समारोह निकालने का श्रेय ग्वालियर के मुरार उपनगर को जाता है। मुरार निवासी समाजसेवी पंडित हरिशंकर समाधिया, बाबूराम दीक्षित, सीताराम दंडोतिया और विदुरदत्त चतुर्वेदी सहित कुछ अन्य लोगों ने अक्षय तृतीया को चल समारोह निकालने का निर्णय लिया था। वर्ष 1954 में पहली बार चल समारोह निकाला गया। पंडित हरिशंकर समाधिया ने चल समारोह के लिए हाथठेले पर भगवान परशुराम की प्रतिमा रखी और फिर उपनगर की विभिन्न सड़कों पर यह समारोह निकाला गया। धर्मावलंबियों ने बाद में इसमें सहयोग देना शुरू किया तो चल समारोह की भव्यता बढ़ती गई।

यह थी चल समारोह निकालने की वजह

घासमंडी निवासी और सबसे पहले चल समारोह के साक्षी पंडित आनंद दीक्षित बताते हैं कि समाजसेवा के क्षेत्र में अलग पहचान रखने वाले पंडित हरिशंकर समाधिया ने आगरा प्रवास के दौरान किसी अन्य समाज द्वारा एक जयंती समारोह को मनाते हुए देखा था। समाज द्वारा किए गए इस समारोह को देखकर उनके मन में विचार आया कि ग्वालियर के लोगों को एकत्रित कर सामाजिक एकता के लिए काम किया जा सकता है। यह विचार मन में आने के बाद जब वे मुरार वापस लौटे तो पंडित बाबूराम दीक्षित, लक्ष्मीनारायण दंडोतिया, सेंट्रल बैंक वाले विदुरदत्त चतुर्वेदी आदि से मशविरा किया। सभी की सहमति मिलने के बाद 70 वर्ष पहले मुरार में हाथठेले पर मध्यप्रदेश का पहला परशुराम चल समारोह निकाला गया। इसके बाद उपनगर ग्वालियर,लश्कर के अलावा भिंड, मुरैना आदि शहरों में भी चल समारोह निकालने की शुरुआत हुई।

 

बाबा को मिला सभी से सम्मान

पंडित हरिशंकर समाधिया के नाती गणेश समाधिया और विदुरदत्त चतुर्वेदी के नाती मृगेन्द्र चतुर्वेदी ने बताया कि हरिशंकर समाधिया अब हमारे बीच नहीं हैं। वे जब तक रहे तब उनका जीवन तपस्वियों वाला ही रहा। गणेश और मृगेन्द्र का कहना है कि बचपन में हमने बाबा से चल समारोह की तमाम बातें सुनी हैं। उनकी जीवटता के किस्से सुने हैं। बगैर किसी महत्वाकांक्षा के समाज के लिए निस्वार्थ समर्पण की कहानियां भी सुनी हैं। घासमंडी निवासी प्रियदर्शी दीक्षित ने बताया कि उनके बाबा बाबूराम दीक्षित आजादी के आंदोलन से भी जुड़े रहे थे। पंडित हरिशंकर समाधिया, बाबूराम दीक्षित,लक्ष्मीनारायण दंडोतिया की गहरी मित्रता थी। इन मित्रों का आपसी सहयोग चल समारोह निकालने की मुख्य बुनियाद बना था।

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